मानव में समझदारी अर्थात अवधारणाएं ही उसके समस्त विचारों एवं क्रियाकलापों के आधार होते हैं। जैसी अवधारणा स्तर पर परिकल्पना होती है वैसे ही परिणाम क्रिया के रूप में आते हैं। केवल क्रियाओं में परिवर्तन करने मात्र से परिणाम में अपेक्षित बदलाव नहीं कर सकते। इसलिए आवश्यक है कि अवधारणा स्तर ही स्पष्टता रखी जाये तदानुसार विचार एवं क्रियाएं ही अपेक्षित परिणाम देंगे। प्रकृति के संबंध में दो अवधारणाएं प्रचलित हैं। एक ईश्वरवादी (अध्यात्मवादी) अवधारणाएं जिनमें माना जाता है कि पृथ्वी या प्रकृति को किसी रहस्यमयी ईश्वर ने पैदा किया है, वही इसका संरक्षक है और एक समय विनाश भी कर देगा। दूसरी पदार्थवादी (भौतिकवादी) अवधारणाएं हैं जिनमें प्रकृति को किसी बड़े धमाके का परिणाम माना जाता है। इसका कोई लक्ष्य नहीं है और अगले किसी धमाके में यह सब समाप्त हो जायेगा।
अतः उपरोक्त दोनों अवधारणाओं से खेती का स्पष्ट स्वरुप नहीं निकला और न ही निकल सकता है, क्योंकि दोनों विचारधाराओं में प्रकृति या पृथ्वी को पहले से विनाश हो जाना स्वीकार किया गया है। खेती की ऐसी स्पष्ट प्रणाली विकसित करने हेतु जिसमें हम वर्तमान पीढ़ी को जैसी रसवती, फलवती, शस्य श्यामला प्रकृति अपने पूर्वजों से मिली है, वैसी ही अगली पीढ़ी को मिले इसलिए अवधारणाओं की पुनः जाँच आवश्यक है।
Imagination & Creativity differentiate humans from the animals. This ability enables us to intervene or control natural processes. It is imperative for human beings to understand laws of nature and act accordingly.
अवधारणा स्तर का अंतर्विरोध और विसंगतियां स्वयं में दुःख-द्वंद, परिवार में दरिद्रता, समाज में अविश्वास एवं भय तथा प्रकृति में असंतुलन उत्पन्न करती हैं। जबकि अवधारणा स्तर पर स्पष्टता ही स्थायी सुख, परिवार में समृद्धि, समाज में विश्वास और प्रकृति में सह–अस्तित्व (संतुलन) उत्पन्न करती हैं। मानव ही पूरी धरती पर एकमात्र ऐसी इकाई है जिसको कल्पनाशीलता एवं कर्म की स्वतंत्रता उपलब्ध है किंतु परिणाम के लिए बाध्य है। प्रकृति में संतुलन और असंतुलन का कारक एवं जिम्मेदार मानव ही है। चूंकि मूलरूप से धरती एक है और मानव अविभाज्य परम्परा है। अतः किसी भी व्यक्ति का विचार और कर्म संपूर्ण मानव जाति एवं प्राकृतिक संतुलन को प्रभावित करती है। जैसाकि एक पेड़ कटने अथवा लगाने से पूरी पृथ्वी के वातावरण एवं मानवजाति के ऊपर प्रभाव पड़ता है जबकि यह कार्य किसी एक व्यक्ति, समूह या समुदाय का हो सकता है। इसी प्रकार व्यक्ति के सह–अस्तित्ववादी अथवा व्यक्तिवादी विचारों का प्रभाव भी परिवार, समाज एवं राज्य पर पड़ता है।
मानव सभ्यता के विकास का इतिहास तो मूलतः अवधारणा के विकास का ही इतिहास है। ग्रामयुग (धातुयुग) के बाद ईश्वरवादी (राजवादी) अवधारणाएं प्रभावी हुई। जिसमें खेती-किसानी का कोई प्रारूप नहीं उभरा किंतु (भारतीय परिप्रेक्ष्य में) वैराग्यवाद, मायावाद से उलटे भटकाव के कारण किसानों और समाज के प्रति उदासीनता उभर गई। जिसके परिणामस्वरूप भौतिकवादी (संघर्ष और लालच आधारित) अवधारणाएं प्रभावी हुई. आज हम जिनके परिणामों से जुझ रहे हैं। यहाँ यह स्पष्ट करना समीचीन है कि भले ही सह-अस्तित्ववाद विचार के रूप में पूरी स्पष्टता के साथ प्रचलन में नहीं रहा किंतु किसानी की संपूर्ण क्रियाएं और खेती के संबंध में अवधारणाएं परम्परा में उपलब्ध है। जैसे जुताई, बुआई आदि क्रियाएं बिना प्राकृतिक नियमों की जानकारी और तादात्मय के बिना संभव नहीं है किंतु इस विचार को राजाश्रय नहीं मिला क्योंकि सह–अस्तित्ववादी अवधारणा में शोषण संभव नहीं है और बिना शोषण के राज्य और सम्प्रदाय संभव नहीं है।
आज हमारे समक्ष एक सम्पूर्ण समाधान के रूप में सह–अस्तित्व आधारित अवधारणाएं आ चुकी है। यही प्राकृतिक नियम हैं, जिनके अनुरूप खेती से ही किसान परिवार में सुख-समृद्धि, स्वस्थ्य पौष्टिक भोजन, खाद्यान सुरक्षा एवं पर्यावरण संतुलन की एक साथ संभावना उदय होती है।
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